हार के बाद वाम रणनीति पर पार्टी के अंदर ही उठने लगे सवाल

नई दिल्लीः एक के बाद एक लाल दुर्ग ढहने से वाम पार्टियों के अंदर ही सवाल उठने लगे हैं। माकपा और भाकपा समेत वाम मोर्चे में शामिल पार्टियों के एक धड़े का मानना है कि प्रयत्न छोड़कर चुनावी राजनीति में ही फंसकर रह जाने से यह हश्र हुआ है। अब नए सिरे से जमीन तैयार करने के लिए फिर से जनांदोलन खड़े करने होंगे, इसके लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का नेटवर्क भी बनाना होगा। पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी वाम सत्ता का अंत कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। चैदहवीं लोकसभा में माकपा और भाकपा समेत वाम मोर्चे के पास कुल 62 सीटें थीं, जो वर्ष-2009 के चुनाव में घटकर 22 रह गईं। पिछले लोकसभा चुनाव में तो वाम मोर्चे में शामिल माकपा, भाकपा और आरएसपी महज 11 सीटों पर सिमट गईं। माकपा के एक नेता कहते हैं, हम लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं, लेकिन नेतृत्व इसके ठोस कारणों तक या तो पहुंचना नही चाह रहा है या फिर सब कुछ जानते हुए भी अंजान बना है। पिछली सदी में 60 व 70 के दशक के प्रयत्न से पैदा हुई फसल को अभी तक काट रहे थे। नयी फसल तैयार करने की प्रयास ही नही की गई, जिसका परिणाम अब सामने आ रहा है। वाम पार्टियों के एक धड़े का मानना है कि उनका शीर्ष नेतृत्व सुविधाभोगी राजनीति का आदी हो गया है। वे मैदान में प्रयत्न करते हुए नही दिख रहे हैं, इसलिए युवा कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा स्रोत भी नही बन पा रहे हैं। जबकि, इससे पहली पीढ़ी के नेता छोटे-छोटे आंदोलनों में भी कार्यकर्ताओं और सदस्यों के साथ खड़े दिखते थे। हालांकि, भाकपा के सचिव अतुल अन्जान इससे इत्तफाक नही रखते। वह कहते हैं कि त्रिपुरा में माकपा को बीजेपी से सिर्फ 6,000 वोट कम मिले, वहां कांग्रेस पार्टी ढंग से नही लड़ी इसलिए वाम मोर्चा हारा।